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Thursday 15 January 2015

एक बार मुस्कुराओ न पापा




(युवा कवि यश मिश्रा की यह बेहद मासूम-सी, भोली-सी कविता मित्र इमराना खान जी के माध्यम से पढ़ने को मिली। स्त्री-जीवन की त्रासदी पर लिखी गई इस कविता की सादगी और निश्छलता ने मन को ऐसे छुआ कि इसे आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। कृपया इसे पढ़ें !)---Dhruv Gupt


देखो शाम हो आई
अभी घूमने चलो न पापा
चलते-चलते थक गई
तो कंधे पर बिठा लो न पापा
मुझे अंधेरे से डर लगता है
सीने से लगा लो न पापा
मम्मी तो कब की सो गई
आप थपकी देकर सुला दो न पापा
स्कूल की पढ़ाई तो पूरी हो गई
अब कालेज में भेजवा दो न पापा
पाल पोसकर बड़ा किया
अब अपने से ज़ुदा तो न करो पापा
छोडो अब डोली में बिठा ही दिया
तो आंसू तो मत बहाओ पापा
आपकी मुस्कान बड़ी अच्छी है
एक बार मुस्कुराओ न पापा
आपने मेरी हर बात मानी
एक बात और मान जाओ न पापा
इस धरती पर बोझ नहीं मैं
दुनिया को समझाओ न पापा !

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