105 वीं जयंती पर स्मरण :
September 1, 2014
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September 1, 2014
हिंदी का सवाल
आज फा.बुल्के की १०५ वीं जयंती है. हिंदी के प्रसंग में आज फा.बुल्के को याद करना हिंदी को ही सम्मानित करना है. फा.बुल्के २५ वर्ष की उम्र में भारत आये और यहाँ हिंदी सीख कर उन्होंने हिंदी की जो सेवा की, उसे जो समृद्धि दी, उसके लिये आज हिंदी स्वयं उनके प्रति श्रद्धानत है. उन्हें हिंदी का धर्मयोद्धा कहा जाता है. किसी हिंदी के लेखक ने उनसे अधिक शिद्दत से हिंदी की हिमायत नहीं की है. उनका दृढ़मत था कि अंग्रेजी को बराबर गले लगाकर हम हिंदीवाले ही हिंदी का सबसे अधिक अपमान करते हैं. लेकिन कई भाषाओँ के विद्वान फा.बुल्के, हिंदी को भारतीय एकता की भाषा के रूप में देखते थे. हिंदी की अवमानना और अंग्रेजी की हिमायत भारतीय संस्कृति का ही अनुचित अनादर है. हमें अपनी संस्कृति और अपनी भाषा पर गौरव होना चाहिए. भारत के ५% से भी कम लोग - वह भी कामचलाऊ - अंग्रेजी लिख-बोल सकते हैं. बोलचाल की हिंदी-उर्दू का प्रयोग करनेवालों या समझनेवालों की संख्या तो पूरे भारत में आज लगभग ५०-६० प्रतिशत हो चुकी है. रेल के सफ़र में इसका साफ़ पता चलता है. विश्व-भाषा के रूप में भी हिंदी आज तीसरे स्थान पर है. दक्षिण में भी हिंदी के विरोध का मुख्य कारण है उत्तर भारत की अंधी अंग्रेजी-परस्ती और अपने घर में ही हिंदी की घोर अवमानना. फा.बुल्के को लोग सबसे ज्यादा उनके अंग्रेजी-हिंदी कोश के चलते जानते हैं. उन्होंने इस अतुलनीय कोश को वर्षों की मेहनत के बाद बनाया था, मैं १९६४ में रांची के कैथोलिक मिशन परिसर के मनरेसा हाउस में उनसे उसी दौरान मिला था. वे अहर्निश उसी कार्य में तल्लीन रहते थे पर उस समय मेरे पिता को सादर स्मरण करते हुए वे बड़े स्नेह से मुझसे मिले. वहां उनका बस एक कमरे का काटेज था – सोने-काम करने का एक ही कमरा. एक ओर उनका बिस्तर और सिरहाने लोहे का लम्बा रैक जिस पर पचासों जूते वाले डब्बे सजे थे. कोश के बारे में बताते हुए उन्होंने एक डब्बा निकाल कर मुझको दिखाया जिसमे लिखे हुए अनेक कार्ड भरे थे जिन सब पर अंग्रेजी शब्द और उनके विभिन्न हिंदी समान्तर अर्थ आदि अंकित थे. काफी देर तक वे मुझको कोश-निर्माण की बारीकियां बताते रहे. मुझे स्पष्ट लगा वे हिंदी के कल्याण के लिए ईश्वर के भेजे एक देवदूत थे. भारतीय अस्मिता की भाषा के रूप में हिंदी की महिमा को अपने रक्त से रेखांकित करने वाले उस महान हिंदी-भक्त से हम हिंदी का सम्मान करना सीखें और अपनी अंधी अंग्रेजी-परस्ती का लबादा उतार फेंकें. यही फा.बुल्के के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी. फा.बुल्के को लोग सबसे ज्यादा उनके अंग्रेजी-हिंदी कोश के चलते जानते हैं. उन्होंने इस अतुलनीय कोश को वर्षों की मेहनत के बाद बनाया था, मैं १९६४ में रांची के कैथोलिक मिशन परिसर के मनरेसा हाउस में उनसे उसी दौरान मिला था. वे अहर्निश उसी कार्य में तल्लीन रहते थे पर उस समय मेरे पिता को सादर स्मरण करते हुए वे बड़े स्नेह से मुझसे मिले. वहां उनका बस एक कमरे का काटेज था – सोने-काम करने का एक ही कमरा. एक ओर उनका बिस्तर और सिरहाने लोहे का लम्बा रैक जिस पर पचासों जूते वाले डब्बे सजे थे. कोश के बारे में बताते हुए उन्होंने एक डब्बा निकाल कर मुझको दिखाया जिसमे लिखे हुए अनेक कार्ड भरे थे जिन सब पर अंग्रेजी शब्द और उनके विभिन्न हिंदी समान्तर अर्थ आदि अंकित थे. काफी देर तक वे मुझको कोश-निर्माण की बारीकियां बताते रहे. मुझे स्पष्ट लगा वे हिंदी के कल्याण के लिए ईश्वर के भेजे एक देवदूत थे. भारतीय अस्मिता की भाषा के रूप में हिंदी की महिमा को अपने रक्त से रेखांकित करने वाले उस महान हिंदी-भक्त से हम हिंदी का सम्मान करना सीखें और अपनी अंधी अंग्रेजी-परस्ती का लबादा उतार फेंकें. यही फा.बुल्के के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी. https://www.facebook.com/photo.php?fbid=4457840901666&set=a.1988935900584.57164.1758948417&type=1 |
हम लोग तो भारतीय होने का गर्व करते हैं , हर जगह थोथी शेख़ी दिखाते हैं , गिटर- पिटर अङ्ग्रेज़ी तो बोलते हैं परंतु हिन्दी का सम्मान नहीं करते हैं। विदेशी लोग हिन्दी से कितना लगाव रखते हैं? इसका ज्वलंत उदाहरण हैं फादर कामिल बुल्के । हम भारतीयों को भी इनके पदचिन्हों पर चलना चाहिए। अपनी मातृ भाषा का सम्मान करना चाहिए। इनको श्रद्धापूर्वक नमन।
---(पूनम )
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